आज फिर चंद बारिश की बूंदों संग,
मन उड़ चला फिर उसी डगर पे !
जिस पर कभी तुम हाथ थाम मेरा चले थे,
वो डगर जो मेरे लिए कभी अनजान न थी,
आज क्यों बन गई नितांत अजनबी सी!
क्या इसीलिए की संग नहीं हो मेरे तुम,
आज यह बारिश की बूंदे दे रही है एक तपिश,
जो फिर जगा रही है वो कसक वो सपने,
जो कभी दिए थे तुमने आखों को मेरी !
यूही एक बार फिर इन संग चलते चलते,
नंगे पाँव इस डगर पर टहलते,
आज इन फुहारों संग मन ने ली अंगड़ाई,
फिर जगी वो आशा मन में की तुम यहीँ हो !
दूर कब हुए थे तुम दिल से मेरे,
आज भी दिल के झरोखे में बसे कहीं !
मन उड़ चला फिर उसी डगर पे !
जिस पर कभी तुम हाथ थाम मेरा चले थे,
वो डगर जो मेरे लिए कभी अनजान न थी,
आज क्यों बन गई नितांत अजनबी सी!
क्या इसीलिए की संग नहीं हो मेरे तुम,
आज यह बारिश की बूंदे दे रही है एक तपिश,
जो फिर जगा रही है वो कसक वो सपने,
जो कभी दिए थे तुमने आखों को मेरी !
यूही एक बार फिर इन संग चलते चलते,
नंगे पाँव इस डगर पर टहलते,
आज इन फुहारों संग मन ने ली अंगड़ाई,
फिर जगी वो आशा मन में की तुम यहीँ हो !
दूर कब हुए थे तुम दिल से मेरे,
आज भी दिल के झरोखे में बसे कहीं !
- किरण आर्या
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शुक्रिया