Thursday, September 6, 2012

रूह तृप्ति


देह से परे भी होता है इक रिश्ता
हाँ रिश्ता रूह से रूह का
दो तन देह की इक चादर में लिपटे
ढूंढते तृप्ति खो एक दूजे में
और समझ तन की तुष्टी को ही
प्रेम की परिणिति खोते
दो तन अस्तित्व अपना
लेकिन होता जब मोह भंग
और टूट जाते भ्रम सभी
क्षणभंगुर इस काया के परिवर्तन
होते परिलक्षित समय संग
देह का सौन्दर्य होता विलुप्त
और रूह तक पहुचने की
राह भी हो जाती ग़ुम
तब रूह का कौमार्य स्थिर सा
देखता मूक हो और
रूह की पिपासा रह जाती
अतृप्त जीवन पर्यंत
चातक सी भटकती
मन की मृगतृष्णा संग
रूह से रूह का प्रेम है
विलग और बिरला सा
जब करती रूह स्पर्श
एक दूजे को तो मिलन
वो होता शब्दों से परे
केवल अहसासों से ही निर्मित
और अहसास नहीं होते
क्षणभंगुर कभी
वो तो रहते जीवंत सदा
जीवन और मृत्यु के
चक्र से परे रूह से ही
पाक साफ़ और पाकीज़ा से..............किरण आर्य

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