Thursday, February 28, 2013

आकाश और मैं


मुझे याद है बचपन से ही
सूर्य का क्षितिज पर उदय होना
पक्षियों का मधुर वो कलरव
मुस्काती किरणों संग लालिमा सूर्य की
मोह लेती थी मन मेरा इकटक निहारती थी मैं


दिन की वो गुनगुनी धुप सर्दियों की साथी
और गर्मी में तपिश उसकी देह को झुलसाती
और सूर्य लालिमा की चादर उतार चमकता
उसकी चमक आँखों को चुंधिया सा देती
और आकाश वो साक्षी इन पलों का निहारता मुझे


नभ पर फैली सूरज की रौशनी कर देती उजियारा
शाम को जब सूरज सागर की बाँहों में समा जाता
उस वक़्त आकाश की नीरवता देह के अवसान
की शुन्यता सी बिखर जाती चहुँ और भयावह सी
आकाश की ये चुप्पी व् स्यामलता डरा जाती कदाचित


मैं डरकर आंखें मूँद लेती और सरपट दौड़ जाती
छत से नीचे की और घर में जाके दुबक जाती इक कोने में
फिर रात के आगमन पर तारो का थाल सजा बुलाता
ये आकाश बरबस खीचता मुझे अपनी ओर ही
मैं सम्मोहन में बंधी खिची चली जाती कठपुतली सी
छत पर पंक्ति से लगी चारपाइयाँ और उन पर लेटें हम
तारो संग बतियाते तब आकाश लगता परिचित अपना सा


उसपर तरह तरह की आकृतियाँ उकेरता हमारा मन
किसी कुशल चित्रकार की भांति आह कितना सुखद वो अहसास
आज जब सोचती हूँ तो यादों के झरोखों से झांकते है वो पल
अब ना आकाश मुझे बुलाता है और ना मेरे पास है समय
उसे निहारने का उससे बैठ बतियाने का .................. किरण आर्य

Thursday, February 7, 2013

कुछ तो लोग कहेंगे

कुछ तो लोग कहेंगे

लोगो का काम है कहना

और उसने मान लिया

नियति इसे

चुप रहना और

आसूं बहना

जितना वो

चुप रहती है

बढती है

हिम्मत उनकी

जिस दिन सीख जायेगी

ईट का जवाब

पत्थर से वो देना

उस दिन

नहीं कहेंगे वो कुछ

देख उसे और

ना भीगेंगे उसके नैना ............किरण

दरख्त और मानुष


ये जो ठूंट सा है दरख़्त खड़ा,
है ये बीते कल का ही साक्षी,
देखे कई पतझड़ है इसने ,
रूबरू हुए इससे बसंत कई ........

है जो लहज़ा इसका सख्त सा,
वक़्त के निर्मम थपेड़ो की मार है,
और उर में बसी जो है मृदुलता,
मोहब्बतों का ही कुछ तो खुमार है ..........

कभी नन्ही पौध सम खिला था ये,
इठलाता सा ये हाँ व्यस्क हुआ,
तब नित नए पुष्प थे खिलते यहाँ,
तब भ्रमरे गुंजन भी थे करते यहाँ .........

पंछी नीड़ बसाने को आतुर थे रहते
फल-फूलो संग गौरान्वित ये हुआ,
राह पथिको की विश्राम ग्रही था बना,
जब साँझ की श्यामल बदली लगी छाने,
जीवन सत्य से ये रूबरू था हुआ ..........

धीरे धीरे जो संगी साथी थे इसके,
सब साथ इसका राह में छोड़ चले,
पत्ते पतझड़ सम झड़ने लगे,
रूप गर्वित था जो वो चूर हुआ,
और ये सूखा इक दरख्त था बना .........

अब निरीह बेबस उदास सा था ये,
वीरान पथ पर है अकेला खड़ा,
कभी बीते दिनों की यादों संग,
अश्रु चुपचाप बहाता ये दिखा,
कभी अपने से ही बतियाता
पगला ये मुस्काता भी दिखा ..........

फिर इक दिन वक़्त की आंधी ने,
जड़ो को इसकी हिला ही दिया,
कभी आसमान को जो छूता था,
आह आज धरती पे ओंधे मूह है पड़ा ........

जिस मिट्टी से उपजा इक दिन ये,
आज देखो उसी में है रमने चला,
जाते जाते भी सत्कर्मी दरख्त ये,
सदकर्म देखो जी कर ही चला .........

ईंधन बन दो जून की रोटी का,
साधन हाय ये बन ही गया,
मानव और वृक्ष का जीवन ये,
इक जैसी ही है डगर चला ...........


पैदा हुए गोद से मिट्टी की,
है नियति दोनों की इसमें ही मिल जाना,
खेलने को इसी की गोदी थी मिली,
और अंत समय भी गोदी में इसकी ही पनाह मिली .........किरण आर्य