Thursday, February 27, 2014

मैं और तुम

आस की बाहं थामे एक भाव ..........
हम और तुम
एक नदी के
दो किनारे से
हाँ दूर सही
लेकिन बस
सुकून है इतना कि
साथ तो चल रहे है
हम और तुम
और है यकीन
दिल को मेरे कि
कहीं ना कहीं
जब संकरी होगी
ये नदी तो
मिलेंगे दो किनारे
और उन संग
जरुर हम और तुम
मुहाने पर खड़ी
आस है बाट जोहती
नदी के संकरे होने की
चाहत को पिरोती
गुनती बुनती
कुछ ख्वाब और उम्मीदें
सीप में छिपे मोती सी
भान उसे
नियति की नियत का
जो नदी के संकरे
होने पर भी
मिलन को बाधित
करने को है आतुर
लेकिन जिद उसकी
बुन रही एक ऐसा सेतु
जो होगा हताशा से परे
पूर्णिमा के चाँद की
मखमली चांदनी सी
मिलन की आभा
से परिपूर्ण
अपने रोष बहाव
को सही दिशा देने को
व्याकुल उसका मन
और उसके साथ-साथ
बहते बिखरते संभलते
जीते अपने-अपने
हिस्से की जिन्दगी
मैं और तुम

Sunday, February 16, 2014

पाषाण

अलसुबह 
जब मन रमता 
प्रभु ध्यान में 
कानो में आती 
मधुर ध्वनि 
पक्षियों के कलरव की 
या मंदिर के घंटे की 
वहीँ उसके कान 
सुनते केवल विलाप 
भोर से लेकर सांझ तक 
केवल रुदन और विलाप 
माटी से निर्मित देह 
होती परिवर्तित माटी में ही 
जीवन और मृत्यु के 
इस शाश्वत सत्य को 
शायद उसने ही 
महसूस किया है शिद्दत से 
बढ़ जाती जब भीड़ कभी 
तो वो गुस्से में 
बुदबुदाता वो 
जल्दी करो और लोग 
हतप्रभ रह जाते 
उसकी जल्दबाजी पर 
हृदय विहीनता पर 
क्या ये संवेदना शून्य है 
नहीं ये उसका कर्म है 
और अपने कर्म से बंधा वो 
जानता काया नश्वर है 
व्यर्थ इसका मोह है
जो आया है 
उसका जाना है निश्चित 
फिर काहे का विलाप 
या फिर 
मृत शरीर ढोते ढोते 
मर चुकी है 
उसकी संवेदनाये भी 
और पाषाण सा हो चूका है वो
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